“दबे मज़दूर दबे”
साल की अंतिम कविता थोड़ी दु:खद है;पर शायद साल को और उन लाचार मज़दूरों को श्रद्धांजली ही
नव वर्ष को तर्पण है।
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“दबे मज़दूर दबे”
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दबे हुए मज़दूर ,
कुछ और दब गये,
खदान के नीचे
धँस गये;
तुम्हें कुछ हुआ क्या।
नहीं न,
मर गये तो मर गये,
हमें क्या,
सरकार दे देगी,
दो चार लाख रुपये,
बैठा देगी,
कमेटी कोई,
तब तक परिवार उनका
मरे या जिये;
तुम्हें क्या;
हमें क्या?
वैसे तो मंत्री ने
रखी है नज़र ,
मीडिया ने दिखाई,
क्षणिक ख़बर ।
तुमने देखी क्या?
हमने पढ़ी क्या?
नेता ने दिया ब्यान,
नहीं न,
नारे नहीं लगे,
कौन देगा
अब उन पर ध्यान ,
सब दलदले हैं दल;
इन्हें क्या;उन्हें क्या?
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राजेश”ललित”शर्मा
३१-१२-२०१६
७:०७-सांय
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