दबे पाँव
दबे पाँव
जब झांक कर देखा वर्तमान की प्राचीर से,
पुकार रहा था कोई अतीत के झरोखे से।
सहजता से अपनाते चले गए बाल सुलभ चेष्टाएँ,
रोम रोम को रोमांचित करने वाली सहज भंगिमाएं।
न पेचीदापन न संजीदगी न रूमानियत,
न दिखावा न बनावट अनुरक्त सा तादात्म्य।
न पराकाष्ठा न संपूर्णता केवल भोलापन,
न आस न परिहास न भीड़ न ही अकेलापन।
न गूढ़ार्थ न सतही केवल प्रवाह और निर्वाह,
प्रमुदित आनंदित केवल स्वीकार्यता और परवाह।
न तृष्णा न वितृष्णा न आक्रामक न विस्फोटक,
न कोई शर्त प्रतिबद्धता उपालंभ का कोई घटक।
दिल की नाव में कभी बारिश का मज़ा लेना,
कभी हवा के सर्द थपेड़ों से भी दो दो हाथ करना।
न कलात्मक प्रतिद्वंद्वी न किंचित भी आत्म सजगता,
रुठना मनाना सहज मान जाना न थी कोरीभावुकता।
डॉ दवीना अमर ठकराल ‘देविका’