*दफ्तरों में बाबू का महत्व (हास्य व्यंग्य)*
दफ्तरों में बाबू का महत्व (हास्य व्यंग्य)
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दफ्तरों में बाबू का महत्व केवल वही जान सकता है, जिसका काम बाबू से अटका हो । सरकारी कर्मचारियों की यह प्रजाति सीधे-सरल लोगों से भी भरी हुई है, लेकिन हम बात उनकी कर रहे हैं जो बड़े घाघ हैं बल्कि कहिए कि बाघ हैं। ग्राहक फॅंस जाए तो उसके कपड़े उतार लें।
कोई फाइल बिना बाबू की सहमति के आगे नहीं बढ़ती। नियम, उपनियम, अधिनियम, शासनादेश आदि क्या हैं, यह केवल बाबू को ही पता होता है। अगर किसी विषय पर बाबू यह कहता है कि उसे नियमों का ज्ञान नहीं है तो इसका मतलब है कि वह कोई न कोई गहरी चाल चल रहा है । अन्यथा बाबू तो सर्वज्ञ होते हैं । इस संसार में सरकारी कामकाज का एक-एक कोना बाबू ने छान मारा है । उसकी तीखी नजरों से कुछ नहीं बचा है। वह चाहे तो आपका पेमेंट उसी दिन करवा दे और चाहे तो बरसों रुकवा दे। सब बाबू के हाथ में है।
जो लोग बाबू के महत्व को नहीं जानते, वह प्रायः अपनी अकड़ में आकर बाबू की उपेक्षा करते हुए सीधे अधिकारी के पास जा पहुंचते हैं । जैसे कि अधिकारी कोई बहुत बड़ा नवाब या बादशाह हो। अधिकारी क्या कर सकता है ? आप उसके पास अपना दुखड़ा लेकर गए हैं तो वह बाबू को ही तो बुलाएगा । बाबू से पूछेगा कि इस विषय में क्या करना है? गेंद अंततोगत्वा बाबू के पाले में ही आनी है। इसलिए चतुर लोग साहब के पास नहीं जाते, वे दफ्तर में घुसते ही बाबू का कमरा पूछते हैं और जाकर उससे सेटिंग करने के काम में लग जाते हैं । उन्हें ठेके, परमिट, लाइसेंस शीघ्र मिलते हैं।
जिस फाइल पर बाबू का अनुमोदन लिख जाता है, उस फाइल को रोकने वाला विभाग में कोई पैदा नहीं हुआ। दूसरी ओर जिस फाइल पर बाबू ने आपत्ति लगा दी, उसे बड़े से बड़े साहब भी पास नहीं कर सकते। बाबू की आपत्ति को दरकिनार करके साहब के लिए यह संभव नहीं होता कि वह अपने बलबूते पर कोई निजी निर्णय ले सकें। आखिर बाबू ने दुनिया देखी है। वह साहब को उस जगह ले जाकर रगड़ेगा, जहॉं पानी भी नहीं मिलेगा । हो सकता है साहब अपने अधीनस्थ बाबू की अवहेलना करके ऐसे बुरे फॅंस जाऍं कि नौकरी तक से हाथ धोना पड़े ! इसलिए होशियार साहब सदा अपने बाबू के पद-चिन्हों पर चलते हैं अर्थात बाबू की टिप्पणी को वेद-वाक्य मानकर उसका अनुपालन सुनिश्चित करते हैं ।
जो बाबू जितना घाघ होता है, वह उतना ही शांत होता है । उसके चेहरे से मासूमियत टपकती है। वह सधे हुए अंदाज में आपके प्रश्न को इस प्रकार से हवा में उड़ा देगा मानों आपका प्रश्न कोई घास का तिनका हो। दूसरी तरफ अगर उसे संतुष्ट कर दिया गया है, तो वह तिनके को भी इतना वजनदार बना देगा कि कोई उसे टस से मस नहीं कर सकता। बाबू का समर्थन और विरोध दोनों ही अद्भुत चातुर्य से भरे होते हैं । वह तर्क पूर्वक अपनी बात कहता है और सामने वाला निरुत्तर होकर रह जाता है।
बाबू के हृदय में जो चल रहा है, उसको भॉंप पाना कई बार साहब की भी बस की बात नहीं होती है । यद्यपि धीरे-धीरे साहब लोग अपने बाबू की मंशा को समझने लगते हैं। फाइल सामने आते आते ही वह जान जाते हैं कि इस फाइल के साथ बाबू का स्वार्थमय समर्थन है अथवा स्वार्थ-रहित विरोध है। लेकिन मजे की बात यह होती है कि सब कुछ जानते हुए भी साहब कुछ नहीं कर सकते । बाबू किसी भी पत्र पर केवल अपनी चिड़िया बैठाता है । पूर्ण हस्ताक्षर तो साहब के ही होते हैं । कुल मिलाकर बाबू कभी नहीं फॅंसता। फॅंसते साहब हैं । बाबू खिलखिला कर हॅंसता है और अपने फॅंसे हुए साहब को अनेक बार तड़पता हुआ छोड़कर आगे बढ़ जाता है।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 99976 15451