थे हम
कहने को बस चराग थे हम
कागज़ के घर में आग थे हम
अंक से मुझे आंकना ना अब
शून्य में ….अंक से भाग थे हम
अर्ज थी तो बात थी कुछ
मर्ज़ीयों में दम भी था कुछ
ज्यादा होना… कम हुआ था
ज्यादे में वैसे कम भी था कुछ
जहाँ हुई बस खाना पूर्ति
कागजो में विभाग थे हम
कहने को बस चराग थे हम
कागज़ के घर में आग थे हम
धुन कोई अच्छी लगी तो
गाना पड़ा रूधे गले से
राख़ में अब भी तपिश बची है
लम्हा – लम्हा जले थे ऐसे
अच्छा लगा पर समझ न आया
जाने कैसी राग थे हम
कहने को बस चराग थे हम
कागज़ के घर में आग थे हम
रंग में रंगहीन द्रव से
सबमें हम घुल – मिल रहे थे
भावनाएं बेरंग थी पर
दिल -जुबाँ को सिल रहे थे
सुबह चढ़ा कुछ पल में उतरा
जाने कैसे फाग थे हम
कहने को बस चराग थे हम
कागज़ के घर में आग थे हम
-सिद्धार्थ गोरखपुरी