थकान और सुकून
“ओहो मैं तंग आ गया हूँ शोर-शराबे से, नाक में दम कर रखा है शैतानों ने।” दफ़्तर से थके-हारे लौटे भगवान दास ने अपने आँगन में खेलते हुए बच्चों के शोर से तंग आकर चीखते हुए कहा। पिटाई के डर से सारे बच्चे तुरंत गली की ओर भाग खड़े हुए। उनकी पत्नी गायत्री किचन में चाय-बिस्कुट की तैयारी कर रही थी।
“गायत्री मैं थक गया हूँ ज़िम्मेदारियों को उठाते हुए। एक पल भी सुकून मय्यसर नहीं है। मन करता है सन्यासी हो जाऊँ…,” बैग को एक तरफ़ फेंकते हुए, ठीक कूलर के सामने सोफ़े पर फैल कर बैठते हुए भगवान दास ने अपने शरीर को लगभग ढीला छोड़ते हुए कहा। इसी समय एक ट्रे में फ्रिज़ का ठंडा पानी और तैयार चाय-बिस्कुट लिए गायत्री ने कक्ष में प्रवेश किया और ट्रे को मेज़ पर पतिदेव के सम्मुख रखते हुए बोली, “पैर इधर करो, मैं आपके जूते उतार देती हूँ। आप तब तक ख़ामोशी से चाय-पानी पीजिये।” कूलर की हवा में ठंडा पानी पीने के उपरांत भगवान दास चाय-बिस्कुट का आनन्द लेने लगे तो ऑफ़िस की थकान न जाने कहाँ गायब हो गई और उनके चेहरे पर अब सुकून छलक रहा था। वातावरण में अजीब-सी शांति पसर गई थी।
“क्या कहा था आपने सन्यासी होना चाहते हैं?” गायत्री ने पतिदेव के जूते उतार कर एक ओर रखते हुए कहा।
“बिलकुल, इसमें ग़लत क्या है!” कहकर भगवान दास ने चाय का घूँट निगला।
“फिर शादी क्यों की थी?” गायत्री ने भगवान दास की ओर दूसरा प्रश्न उछाला।
“मेरी मत मारी गई थी।” भगवान दास बिस्कुट चबाते हुए बोले, “अगर पहले पता होता, शादी के बाद इतने पचड़े होंगे, रोज़ नए पापड़ बेलने पड़ेंगे, ज़िम्मेदारियों के हिमालय पर्वत उठाने पड़ेंगे तो कभी शादी न करते।” भगवान दास को इस बहस में बड़ा सुकून-सा मिलने लगा था।
“दफ़्तर में कुर्सी पर बैठे सारा दिन बाबूगिरी किये फिरते हो। घर में दोनों समय पकी-पकाई रोटी तोड़ते हो। चार वक़्त चाय पीते हो। लाट साहब की तरह धुले-धुलाये कपड़े पहने को मिल जाते हैं। फिर भी ये तेवर!” गायत्री अब धीरे-धीरे रौद्र रूप धारण करने लगी थी। भगवान दास मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। यूँ गायत्री से छेड़ किये हुए, उसे एक अरसा हो चुका था।
“और नहीं तो क्या? इतना भी नहीं करोगी तो शादी का फ़ायदा क्या है?” भगवान दास ने मज़ाक को जारी रखा।
“अच्छा, ये दीवार पर किनकी तस्वीरें टँगी हैं?” गायत्री ने अपने पति से अगला प्रश्न किया।
“क्या बच्चों जैसा सवाल कर रही हो गायत्री? मेरे माँ-बाबूजी की तस्वीरें हैं,” कहते हुए भगवान दास के मनोमस्तिष्क में बाल्यकाल की मधुर स्मृतियाँ तैरने लगीं। कैसे भगवान दास पूरे घर-आँगन में धमा-चौक मचाते थे! माँ-बाबू जी अपने कितने ही कष्टों-दुखों को छिपाकर भी सदा मुस्कुराते थे।
“क्या आपको और आपके भाई-बहनों पालते वक़्त, आपके माँ-बाबूजी को परेशानी नहीं हुई होगी? अगर वो भी कहते हम थक गए हैं, ज़िम्मेदारियों को उठाते हुए। बच्चों के शोर-शराबे से तंग आ चुके हैं, तो क्या आज तुम इस क़ाबिल होते, जो हो?” गायत्री ने प्रश्नों की बौछार-सी भगवान दास के ऊपर कर डाली, “और सारा दिन घर के काम-काज के बीच बच्चों के शोर-शराबे को मैं झेलती हूँ। यदि मैं तंग आकर मायके चली जाऊँ तो!” गायत्री ने गंभीर मुद्रा इख़्तियार कर ली।
“अरे यार वो थकावट और तनाव के क्षणों में मुँह से निकल गया था,” मामला बिगड़ता देख, अनुभवी भगवान दास ने अपनी ग़लती स्वीकारी।
“अच्छा जी!” गायत्री नाराज़ स्वर में ही बोली।
“अब गुस्सा थूको और तनिक मेरे करीब आकर बैठो।” चाय का खाली कप मेज़ पर रखते हुए भगवान दास बोले। फिर उसी क्रम को आगे बढ़ते हुए, बड़े ही प्यार से भगवान दास ने रूठी हुई गायत्री को मानते हुए कहा, “जिसकी इतनी ख़ूबसूरत और समझदार बीबी हो, वो भला ज़िम्मेदारियों से भाग सकता है,” गायत्री के गाल पर हलकी-सी चिकोटी काटते हुए भगवान दास बोले।
“बदमाश कहीं के.” गायत्री अजीबो-ग़रीब अंदाज़ में बोली।
एक अजीब-सी मुस्कान और शरारत वातावरण में तैर गई।