त्रेतायुग-
त्रेतायुग-
रावण क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत विभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड।।
जो संपत्ति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोई संपदा विभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ।।
कलयुग-
👆 इसके विपरीत है, अपना हक तो लेना ही है।
दूसरे के हक को भी हड़पना ही है।