त्रासदी
हालातों का तमाशा देखते हुए हम जी रहे हैं ,
मूकदर्शक बने हम मजबूर होकर रह गए हैं ,
संविधान और नागरिक अधिकार वस्तुस्थिति में ,
सिर्फ कोरी बातें होकर रह गए हैं ,
राजनीति एवं पूंजीवाद की साठ- गांठ के बीच
नागरिक पिस रहे हैं ,
सामुहिक मानसिकता हावी है ,
व्यक्तिगत अभिव्यक्ति पर ताले पड़े हैं ,
महंगाई की मार झेलते आम आदमी को ,
दो जून रोटी के लाले पड़े हैं ,
गरीबी की हालत बद से बदतर हो रही है ,
मानवता सिसक- सिसक कर रो रही है ,
अत्याचार एवं सामाजिक उत्पीड़न की हद हो गई है,
निरीह बेगुनाहों को अकारण सज़ा दी जा रही है,
मंहगाई और बेरोजगारी चरम सीमा पर
पहुँच चुकी है ,
अर्थव्यवस्था एवं आतंरिक सुरक्षा
खतरे में पड़़ी है ,
बेरोजगारी की मार से युवा कुंठित ,
दिग्भ्रमित हो गलत राह पर चलने बाध्य हुआ है ,
अच्छे दिन फिरने की उसकी आशा धूमिल हो ,
उसे भविष्य अंधकारमय प्रतीत हो रहा है ,
न जाने कब यह त्रासदी का दौर खत्म हो नव यथार्थ के क्षितिज से नव निर्माण का सूर्योदय होगा ?
जो सत्य , अहिंसा , परस्पर प्रेम एवं शांति पर आधारित नवयुग में पदार्पण करेगा !