त्याग
निकलो न बेपरवाह,
हवा बहुत सर्द है,
हो गुलाब की तरह!
नाजुक, मासूम, खूबसूरत,
महंँक बिखेरने के लिए,
सुंदर दिखने के लिए,
संस्कृति की प्रतीक!
पर समझता कौन?
अनपढ़; निरक्षर;
जिसे है, गेहूंँ की फिक्र,
भूख मिटाने की;
पेट की;
तन की;
वह तो गुलाब को
कुचलना जानता है,
मसलना जानता है,
वह दिल-ए-बेजार,
बड़ा बेदर्द है,
निकलो न बेपरवाह,
हवा बहुत सर्द है।
मौलिक व स्वरचित
©® श्री रमण ‘श्रीपद्’
बेगूसराय, (बिहार)