तौबा ! ये फेसबुकिया मित्र
मित्रता हेतु प्रार्थना तो अवश्य करते है सभी ,
और प्रार्थना कबूल भी सबकी कर ली जाती है।
मगर मित्रता निभाता कौन है पूछो तो जरा ,
बस मित्रों की संख्या यूं ही बढ़ा दी जाती है ।
देख देख कर बड़े खुश होते मित्रों की सूची हम,
मगर सक्रियता में कुछ की ही शक्ल दिखती है।
कुछ सक्रिय होते है बस अपना राग अलापने में,
किसी और की पोस्ट इनको दिखाई नही देती है।
कुछ का तो जबरन खाता खुलवाया गया लगता है,
कई महीनो सालों में उनकी एक पोस्ट दिखती है।
कुछ लोग बर्ताव करते है किताब के पन्नो के जैसे ,
ऐसे में भला दिलचस्पी किसी पोस्ट में टिकती है!
इन क्षणबंगुरों से लाइक ,शेयर ,कॉमेंट्स की आशा ,
हाय ! क्यों हमारी तमन्नाएं अंधेरों में तीर चलाती है।
मगर पांचों उंगलियां हाथों में बराबर नही होती जैसे ,
इनमें कुछ सज्जन/ दयालु महान हस्तियां भी होती है
जिनसे हमारी किसी रचना पर दाद मिल ही जाती है,
ऐसे में खुशी से हमारी दिल की कली खिल जाती है।
बहुत कम ऐसे मित्र है जो संपर्क में रहते है सदा ,
और जिनको जन्मदिन या सालगिरह याद रहती है।
“ओह हो ! माफ करना ,ध्यान नही रहा ,हम busy थे”
अपनी व्यस्तता का बहाना बना ये दलील दी जाती है।
अरे दूसरों की बात छोड़ो ,यहां अपने भी कम नहीं ,
जब अपने ही नजरंदाज करें तो कितनी चोट लगती है।
हमने फेसबुक की शरण ली थी बड़े अरमानों के साथ,
मगर यहां शायद भेदभाव की नीति अपनाई जाती है ।
सूरत देखकर तिलक लगाते है चाहे अपने हों या पराए,
किसी के फन को नही रूतबे को अहमियत दी जाती है
मार्क जुकरबर्ग ने क्या सोचकर यह माया नगरी बनाई,
इस नगरी में हम बद नसीबों की दाल कहां गलती है।