तोटक छंद
सबकी अपनी-अपनी करनी,
सबकी अपनी-अपनी भरनी।
किसने किसको कितना समझा,
उतना विरथा भ्रम में उलझा।
अपनेपन का दिखता तन जो,
वह भीतर से कपटी मन हो।
शुभ दीपक जो जलता घर में
कब वो कहता अपना-“पर” है।
तम तो मिटता बस रोशन ही,
पथ में वह भी यह भी सब ही।
अभिमान नहीं खुद पे करता,
पथ रोशन शीश झुका करता।
नव सूरज जो प्रभ में चलता,
वह शाम ढ़ले झुक के ढ़लता।
गढ़ता जब मानव व्यर्थ कथा,
उलझा नट सा रहता उलथा।
जब जीवन ये निर ध्येय बना,
जब व्यर्थ अकारण हो बहना।
अभिप्राय बिना शव सा तिरता,
वह मानव जीकर भी मरता।
संतोष सोनी “तोषी”
जोधपुर ( राज.)