तेवर
फूल बनकर अपनी ही खुशबू लुटा देती है जो ,
बैठे – बैठे अक्सर ही मुस्करा देती है जो I
यूँ तो है कठिन बहुत उसको समझ पाना मेरा ,
उठा के फ़िर शोख़ पलकों को झुका लेती है वो II
जो आरिज़ो पे शबनमी मोती ढलक आते
निगाहों से जाम मय के छलक जाते
हवाओं के साज़ पे मचलती शाखेगुल
ज़र्रे ज़र्रे शोख़ अदा से महक जाते
चोरनी वो है नहीं पर आजकल अक्सर ही ,
नूर मौसम की निगाहों का चुरा लेती है वो I
यूँ तो है कठिन बहुत उसको समझ पाना मेरा ,
उठा के फ़िर शोख़ पलकों को झुका लेती है वो II
बदल जाते है रंगी फ़ज़ा के तेवर
चूमे होंठ तवस्सुम की बिजलियाँ आकर
टूट जाता रात की आँखों का जो जादू
फूट पड़ती किरने हुस्न की तपिश पाकर
गुज़र कर अहसास से बन कोई ग़ज़ल ,
जज्बातों में एक हलचल सी मचा देती है वो I
यूँ तो है कठिन बहुत उसको समझ पाना मेरा ,
उठा के फ़िर शोख़ पलकों को झुका लेती है वो II