तेवरी में गीतात्मकता +योगेन्द्र शर्मा
ग़ज़ल के जन्म के समय, लगभग सभी प्रचलित विधाएं, कथ्य पर ही आधारित थीं। ग़ज़ल का कथ्य था, हिरन जैसे नेत्रों वाली (मृगनयनी से प्रेमपूर्ण वार्तालाप)। भजन का कथ्य था, अपने इष्ट के प्रति समर्पण तथा मर्सिया किसी दिवंगत के प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पण था आदि।
वैज्ञानकि कहते हैं कि स्वभाव से ‘नकलची’ बन्दर हमारे पूर्वज थे। कटुसत्य तो यही है कि हम भेंड़ों से सर्वाधिक प्रभावित हैं। जिस स्थान पर भीड़ जुट जायें, अथवा जो व्यक्ति-भीड़ जुटा ले, उसे ही पवित्रता, महानता का चश्मा पहना देते हैं। हमारे पड़ोस में एक छोटा सी जीर्ण-शीर्ण मन्दिर है, वैसे ही पुजारी जी, पूजा में लीन, दुनियादारी से हीन। मेरे पड़ोसी मित्र कहते हैं, इस बेकार मन्दिर में जाकर क्या करेगें? यहाँ से कुछ दूर अति भव्य मन्दिर है, बड़ी बड़ी कारों में सेठ आते हैं, सैकड़ो भक्त आते हैं, बड़ा सिद्ध मन्दिर है, जो माँगो सो मिलता है। आजकल तो राजनैतिक पार्टियाँ लोकप्रिय खिलाडि़यों व अभिनेताओं को धड़ाधड़ टिकट बाँट रही हैं, क्योंकि वह भीड़ जुटाने में सक्षम हैं।
वह जीर्ण-शीर्ण मन्दिर जहां दो चार भक्त ही आते हैं, वह छोटा-सा मन्दिर ही-तेवरी का घर है, और वह भव्य मन्दिर जहाँ भक्तों की भीड़ है, हजारों का चढ़ावा है- ग़ज़ल का घर है। क्या संख्या का बल ही, वास्तविक बल है! क्या हमारा कर्तव्य पूर्व महाकवियों का अन्धानुकरण करना ही है? क्या यही तर्क काफी है, कि हर भाव की अभिव्यक्ति का एकमात्र माध्यम ग़ज़ल ही है।
इतिहास गवाह है, कि जब-जब किसी नये विचार ने जन्म लिया है, यथास्थितिवादियों ने सदा उसकी उपेक्षा की, उपहास किया, फिर विरोध किया और कड़े संघर्ष के पश्चात उसे स्वीकार भी किया।
यूं शैशवकाल में ग़ज़ल सामन्तों, बादशाहों राजाओं की लाडली रही। ग़ज़ल एक अर्से तक राजाश्रय में फलती फूलती रही। धीरे-धीरे वह वर्तमान समाज की विसंगतियों, व्यवस्था-विरोध, असंतोष की अभिव्यक्ति बन गयी। कभी-
“सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है, जोर कितना, बाजु-ए-कातिल में है”, जैसी ग़ज़लों ने आजादी के सिपाहियों को आत्मोत्सर्ग की राह पर चलने को प्रेरित किया। आजकल तो हर भाव की अभिव्यक्ति ग़जल के माध्यम से कर देना, एक फैशन बन गया है।
हमारा ग़ज़लकारों से अनुरोध है कि भले ही आप हमें तेवरीबाज और तेवरी को ‘घेवरी’ कहकर मजाक उड़ायें, आपका स्वागत है। आपको अपनी ‘मृयनयनी’ से प्रेमपूर्ण बातचीत करनी है, तो बाखुशी ग़ज़ल लिखें, परन्तु यदि आपको व्यवस्था से युद्ध करना है, तो क्या यहीं ‘रोमांटिक’ नाम ही बचा है, आपके पास? क्या आपके पास ‘नामों का अकाल’ है? या फिर बताया जाये, कि हम वैचारिक रूप से कहाँ ग़लत है? क्या हिवस्की में शक्ति-रूह-अफ्ज़ा मिलाना उचित है? यदि कोई दवा कम्पनी द्राक्षासव को लेबिल लगा कर आपको कुमारी आसव दे रही है, तो क्या यह ग्राहकों के साथ धोखाधड़ी नहीं है, ठीक है, ‘तेवरी’ अटपटा लगता है, तो कोई दूसरा नाम सुझा दीजिये, परन्तु किसी विधा से ऐसी मनमानी, घालमेल मत कीजिये।
तेवरी की प्रेरणास्रोत भले ही ग़ज़ल रही हो, परन्तु वह आज शिल्प व कथ्य की दृष्टि से गीत के अधिक करीब है। ग़ज़ल का हर शेर जहाँ स्वयं में ‘मुकम्मल’ होता है, वहां तेवरी का हर तेवर आपस में अन्तरसंबंधित होता है। भावान्वति में एकरसता होती है, निरन्तरता होनी है।
अरूण लहरी की यह तेवरी, एक बेरोजगार का सरकार को खुला-पत्रा प्रतीत होता है। हर तेवर एक माला की तरह आपस में गुथा हुआ है-
हर नैया मंझधार है प्यारे
टूट गयी पतवार है प्यारे।
हर कोई भूखा नंगा है
ये कैसी सरकार है प्यारे।
शिक्षा पाकर बीए , एमए
हर कोई बेकार है प्यारे।
इसी क्रम में योगेन्द्र शर्मा की तेवरी का हर तेवर, माला जैसा प्रतीत होता है। वस्तुतः यह तेवरी, एक भ्रष्ट थानेदार पर लिखी गयी ‘पाती’-सी प्रतीत होती है-
डाकुओं कौ तुम ही सहारौ थानेदारजी
नाम खूब है ‘रह्यो, तिहारौ थानेदारजी।
सच्चे ईमानदार डूब गये नदी बीच
गुंडन कूं रोज तुम तारौ थानेदारजी।
देवे नहीं घूस कोई, फिर तौ जी आपको
फौरन ही चढि़ जात पारौ थानेदारजी।
एक अभावों में पली-बढ़ी मध्यवर्गीय गृहणी, अपनी सहेली को अपनी मनोव्यथा, सुरेश त्रस्त की तेवरी के माध्यम से सुना रही है। हर तेवर की भावान्वति दूसरे से अन्तरसंबंधित है। तेवरी दृष्टव्य है-
दलदल में है गाड़ी बहिना,
गाड़ीवान अनाड़ी, बहिना।
दुख के पैबन्दों में जकड़ी
खुशियों की हर साड़ी बहिना।
साँस-साँस पर दुखदर्दों की
चलती आज कुल्हाड़ी बहिना।
आम जनता को जगाती, ज्ञानेन्द्र साज की एक ऐसी ही तेवरी, मुलाहिज़ा हो-
लूट रही सरकार, साथी जाग रे
कर कोई उपकार, साथी जाग रे।
तेरे-मेरे सबके तन पर है अब तो
महंगाई की मार, साथी जाग रे।
असंतोष आक्रोश-भरी इस तेवरी के माध्यम से कवि रमेशराज अपनी लेखनी से ही वार्तालापरत हैं, तेवरी-
अब हंगामा मचा लेखनी
कोई करतब दिखा लेखनी।
मैं आदमखोरों से लड़ लूँ
तुझको चाकू बना लेखनी।
सब घायल हैं इस निजाम में
कौन यहाँ पर बचा, लेखनी।
गोपियाँ ज्ञानी ऊधो को ज्ञान दे रही हैं, निम्न तेवरी के माध्यम से भावान्वति की निरन्तरता दृष्टव्य है-
सुख बस्ती में श्याम ने ऐसे बाँटे रोज
दर्द गया हर गाल पर, जड़ कर चाँटे रोज। मरें हम कब तक ऊधो?
डकैतियाँ तो पड़ गयी पहुंच न पायी चौथ
इस पर थानेदार ने डाकू डाँटे रोज। मरें हम कब तक ऊधो?
बहाना तो ज्ञानवान ऊधो को ज्ञान का दान है, परन्तु अज्ञानी गोपियाँ रमेशराज की इस तेवरी के माध्यम से सारी व्यवस्था पर निर्मम चोट कर जाती है। शिल्प व कथ्य दोनों की दृष्टि से उद्धृत तेवरी ग़जल से मीलों दूर है-
नौकरशाही ने किये ऊधो अजब कमाल
दफ्तर-दफ्तर बैठ कर खींची जन की खाल। लाल जसुदा के चुप हैं।
साँस-साँस में भर गयी नयी विषैली वायु
वृन्दावन भी हो गया, जैसे अब भोपाल। लाल जसुदा के चुप हैं।
रमेशराज, एक प्रयोगधर्मी कवि के रूप में, एक हाइकुदार तेवरी के माध्यम से , जनता जनार्दन का असंतोष व्यक्त करते हैं। भोली गोपियाँ, किस प्रकार विद्वान ऊधो की खबर ले रहीं हैं, उक्त तेवरी में दृष्टव्य हैं-
पहले भूख मिटाइये, ऊधो ब्रज में आप।
फिर मोबाइल लाइये, ऊधो ब्रज में आप। सियासी दाँव न खेलो।
हरित क्रान्ति रट रात-दिन, बिन बिजली बिन खाद
हमको मत भरमाइये, ऊधो ब्रज में आप। सियासी दाँव न खेलो।
वस्तुतः हम कह सकते हैं कि तेवरी एक स्वतंत्र, व स्वावलम्बी व सम्पूर्ण विधा है, जो गीत और गीतात्मकता के साथ आत्मीय सबंध बना चुकी है। भले ही तेवरी लिखने वालों कवियों की संख्या, गिनी-चुनी है, परन्तु तेवरी के जन्म के पीछे जो तर्क, जो ऊर्जा है, उससे कोई इन्कार नहीं कर सकता।