तेवरीकारों को यह भी बताना होगा… *निष्काम
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वक्त की ‘त्यौरी’ के साथ आदमी के ‘तेवर’ भी बदल रहे हैं। ये तेवर यथार्थोन्मुखी होकर खोखले आदर्शों की लहरों को चीर रहे हैं, तो क्या आश्चर्य? साहित्य का प्रयोजन भी यही है। जो कुछ है अर्थात् यथार्थ त्रासद और दमघोंटू है। और जो आदर्श हैं वे भी खोखले और बेमानी हैं अर्थात् कथनी और करनी के मुखौटो में कोई तालमेल नहीं है। इन तमाम विरोधाभासों और जानमारू परिवेश में व्यक्ति का दम घुट रहा है, तो उसकी त्यौरी तनेगी ही, आक्रोश होगा ही, लेकिन तेवरीकारों को यह भी बताना होगा कि जो कुछ भी यथार्थ है, उसमें आदर्श रूप में होना क्या चाहिए? ‘तेवरीपक्ष’ अपनी इस जिम्मेदारी से बरी कैसे हो सकती है? विषाक्त यथार्थ का विसर्जन करना है, तो सृजन क्या करना है और कैसे करना है? ‘तेवरीपक्ष’ यह भी बताए, तो हमारा प्रयास सामायिक तौर पर सार्थक होगा।