तेवरी का शिल्प ग़ज़ल से भिन्न है -दर्शन बेज़ार
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ग़ज़ल-समर्थक तेवरी के बारे में कहते हैं कि तेवरी का शिल्प तो ग़ज़ल जैसा है, अतः तेवरी ग़ज़ल ही है। चेतन दुवे ‘अनिल’ का मानना है कि-‘‘तेवरी नाम देकर क्या तीर मारा, तेवर शब्द से तेवरी बना लिया, वस्तुतः तेवरी और ग़ज़ल के विधान में फर्क नहीं है।’’
ग़ज़ल विधा के विशेषज्ञ और शोध आचार्य डॉ . रोहताश्व अस्थाना के शोध प्रबन्ध में स्थापित कुछ मान्यताओं पर विचार किया जाना उचित होगा। उनके मतानुसार-‘‘ग़ज़ल की उन्नीस बहरें हैं- अज़ज, रजज, रमल से लेकर मुश्तकिल जदीद तक। ग़ज़ल के संविधान निर्माता फारसी-अरबी में तत्कालीन पंतजलि, भरतमुनि की भांति विद्वान व्याकरणाचार्य रहे होंगे। ग़ज़ल में मतला, मक्ता, रदीफ, काफिया, रुक्न, अरकान के विन्यास के साथ-साथ बहर का अनुशासन भी आवश्यक है तथा यह अनुशासन ही ग़ज़ल को ग़ज़ल कहलाने का हक प्रदान करता है।
ग़ज़लकार ग़ज़ल को फाइलातुन, मफाइलुन, फैलुन आदि रुक्न के माध्यम से एक निश्चित अनुशासन में बाँधकर ग़ज़ल को मुकम्मल करते हैं, जबकि तेवरी तो अत्यन्त ही सहज बोलचाल की भाषा में प्रचलित हिंदी छन्दों में लिखी जाने वाली काव्य-रचना है। सहजभाव से दोहा, चौपाई, आल्हा, सवैया आदि छंद तेवरी में अपनाये जाते हैं। ग़ज़ल की भांति कठोर नियम तथा अनुशासन या बहर की प्रतिबद्धता इसमें नहीं है।
कुछ ग़ज़ल समर्थक यह कहते हैं कि-‘‘ग़ज़ल का उन्नीस बहरों में ही बँधे रहना जरूरी है।’’ क्या उन्नीस बहरें भी इन्सान ने नहीं बनाई हैं। इन्सान प्रवृत्ति के अनुसार तीस-पैंतीस या इससे भी अधिक बहर बना सकता है। हमारा मानना है कि व्याकरण तो व्याकरण ही होता है और उसमें नियमों की पाबन्दी होती है। उस पाबन्दी को हटाना ग़ज़ल के संविधान को नष्ट करना ही होगा।
हम किसी ऐसे व्याकरण की अनदेखी मात्र इसलिए कर दें कि आज सर्वत्र मंच एवं मीडिया में ग़ज़ल की ही जय-जयकार हो रही है तो हम भी अपनी रचना को भी ग़ज़ल कहलवाकर ही दम लेंगे, यह साहित्यिक कम व्यावसायिक सोच अधिक है। श्री रतीलाल शाहीन ने एक प्रसंग में उद्धृत किया है कि ‘एक गंगाजमुनी कविसम्मेलन-मुशायरे में एक कवि अपनी रचना को बार-बार ग़ज़ल कहकर प्रस्तुत कर रहे थे तो बीच-बीच कवयित्री मोना अल्वी प्रतिक्रिया देती जा रही थी कि ये भी ‘ग़ज़ल’ है क्या?
ग़ज़लकारों द्वारा मंच पर अपनी पहचान को बरकरार रखने को आतुरता ग़ज़ल नाम को ओढ़े रहना ग़ज़ल की निष्काम सेवा नहीं है। तेवरीकारों के बारे में तेवरी विरोधी एक लोकप्रिय तथा मंचप्रतिष्ठित सरस्वती पुत्र के विचार निम्नवत रहे हैं- ‘‘भगवान करे [या रमेशराज करे] तेवरी भी साहित्यिक विधा में गिन ली जाए और देवराजों , सुरेश त्रस्तों, अरुण लहरियों का कल्याण हो जाए, कोई पूछे कि तेवरियाँ कहाँ मैन्युफैक्चर होती है तो झट मुँह से निकलेगा-अलीगढ़।’’
निस्सन्देह यह किसी ईर्षालु की उसके हृदय की छुपी हुई कुंठित भावना हो सकती है, किसी सरस्वती के आराधक की नहीं। तेवरी मैन्युपफैक्चर होने की बात पर हम इतना ही कह सकते हैं कि तेवरियाँ लिखी जा रही हैं न कि मैन्युफैक्चर हो रही हैं। तथाकथित ग़ज़लकारों को हम ‘ग़ज़ल के बहाने’’ में डॉ. दरवेश भारती की अपील पढ़ने को अनुरोध करते हैं। उन्होंने ग़ज़ल को निर्धारित बहरों के अनुशासन में ही लिखने की राय दी है।
तेवरीकारों ने ग़ज़ल के शिल्प और उन्नीस बहरों के अनुशासन को पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व ही संज्ञान में ले लिया था और उसे न अपनाकर हिंदी छंदों में अपनी बात कहनी शुरू कर दी थी। डॉ. भारती आज जो तथ्य सबके सामने रख रहे हैं, इनसे स्पष्ट होता है कि तेवरी को ग़ज़ल मानना या कहना हर कोण से गलत है। डॉ. भारती ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष को भलीभांति जानते हैं, इसी कारण वे लम्बी-ऊँची दौड़ लगाने वाले तथाकथित ग़ज़लकारों की मनमानी पर क्षुब्ध हैं। कुछ ग़ज़ल समर्थकों की दृष्टि में तेवरी अनपढ़ों की भाषा है। डॉ. दरवेश भारती का चिन्तन तो अनपढ़ों का नहीं। उन ग़ज़लकारों को डॉ. दरवेश भारती की पीड़ा हृदयंगम करने की आवश्यकता है।
हमारी धारणा है कि जो तथाकथित ग़ज़लें कही जा रही हैं, वह बड़े ही धैर्य के साथ हृदय से होकर होठों तक आ पाती हैं। लिखी जाने वाली ग़ज़ल के प्रकाशन के लिए ग़ज़लकार उतावला रहता है। इन ग़ज़लों में भी अन्तर इतना है कि कहीं जाने वाली ग़ज़लों का ग़ज़लकार दो चार ग़ज़लें कह कर ही वर्षों तक पाठकों के मन पर छाया रहता है जबकि लिखी जाने वाली ग़ज़लों का लेखक दो चार वर्षों में ही सुपरसीट हो जाता है।
‘‘भगवान करे तेवरी भी विधा मान ली जाए’’ के प्रसंग पर हम इतना ही विनम्र निवेदन करते हैं कि किसी मठाधीश के मठ में दाखिल होकर झुक-झुककर उनके चरणों का चुम्बन करने की सामयिक कला तेवरीकारों में नहीं हैं। हमारे सामान्य और सहज पाठक ही हमारे सम्बल हैं और इस विधा के एप्रूवर हैं। तेवरीकारों को छपास का भी संक्रामक रोग नहीं है। हम तो सम्पादकों को विनम्र निवेदन करते रहे हैं कि कृपया हमारी रचना को तेवरी नाम से ही, [यदि प्रकाशन-योग्य समझें तो] छापें, ग़ज़ल नाम से नहीं। न छापने के निर्णय के बाद रचना को स्वयं ही नष्ट कर दें ताकि कभी दुरुपयोग न कर ले कोई अन्य व्यक्ति।