तेवरी का फार्म ग़ज़ल से बिलकुल अलग +श्रीराम मीणा
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तेवरी के तेवर देखने-पढ़ने लायक हैं, गोया ये बदलते वक्त की तस्वीर हैं। तेवरी के तेवर कुछ ज्यादा ही तेज होने के कारण तेवरी का फार्म ग़ज़ल से बिलकुल अलग है।
….फिर भी दुष्यन्त की हिन्दी ग़ज़लों से तेवरी आगे नहीं जा पा रही है, ऐसा क्यों? यदि तेवरी में भोंथरापन आता है तो यह अपने उद्देश्य में ठीक होने के बावजूद नयी पौध के तेवर से ज्यादा कुछ और नहीं रह पायेगी।
तेवरी नये तेवरों की अनुशीलन विधा है जिसमें राग है, लय है और सबसे बड़ी बात इसकी मारक क्षमता है। यह नंगों की नंगाझोरी नहीं लेती बल्कि सफेदपोशों को सरे-आम नंगा करती है। तेवरी वक्त की जरूरत को बखूबी समझती है। पर भाई जो निचुड़ चुके हैं, उनको तेवरी क्या निचोड़ेगी?
यही सवाल नंगा नहाने वालों के साथ है। उन्हें बाथरूम से निकालो यार! भले ही जूते मारकार निकालना पड़े। अब हम साहित्य में जूते चलाने लगें तो हमारे बूढ़े हमें निकम्मा भी कह सकते हैं या फिर अश्लील भी। जो संसद में जूते चलाते हैं उन्हें हमारे साहित्य के बाप जब समय-समय अपना बाप कहते आ रहे हैं, तब ये तेवरी या साहित्य में जूते की जन्मपत्री को बुरा क्यों मानते हैं?