*तृण का जीवन*
चल पड़े हैं ऐसी डगर को,
जहां का हम पता पूछते हैं,
आज हम वीरान हवाओं से पूछते हैं,
बताओ मेरी मंजिल है कहां।
कभी दुनिया को देखते हैं,
कभी ईश्वर से पूछते हैं,
आज हम वीरान हवाओं से पूछते हैं,
बताओ मेरी मंजिल है कहां।
कभी धरती से लिपटा था,
मैं तब तक हरा भरा था,
कट गया बे वक्त ठिकाना ढूंढते हैं,
आज हम वीरान हवाओं से पूछते हैं,
बताओ मेरी मंजिल है कहां।
जन्म हुआ था शोभा बढ़ाने के खातिर,
भूखे पशुओं की भूख मिटाने के खातिर,
मिटाने वाले जगत से जवानी पूछते हैं,
आज हम वीरान हवाओं से पूछते हैं,
बताओ मेरी मंजिल है कहां।
ईश्वर से दुआ करते हैं,
तृण रूप न दिया होता,
सूक्ष्म रूप पर कष्टों का भंडार न दिया होता,
परिवर्तनशील इस धरती से,
आज हम अपनी कहानी पूछते हैं,
आज हम वीरान हवाओं से पूछते हैं,
बताओ मेरी मंजिल है कहां।।
शशांक मिश्रा