तुलसी मेरी
एक खंडहर में मेरा ख्याल बसा है
उजड़ी हुई आत्मा मे वह सच्चा-सा, भ्रम और मिथ सब लगा है
फिसलते देख ऐसे मेरा घर आंगन
कि बिखर गए है चोखट पर तेरे
मेरी आस की अश्रुधारा
रखा तुम्हारी दहलीज़ पर
वो दिया भीग रहा है
जो खो रहा अपना रंग
जो लोटा रहा है अपना ढंग
वो बाती कहीं गायब है…….
जो पहुंचाती थी मेरी अर्जी
मेरे ख्वाबों की एक लौ थी
जो जल उठती, महक उठती
मेरी हर कोशिशों की
वो धूप कहीं गायब है…….
उजड़ रहा वो सन्देश मेरा
ढह रही वो कामना मेरी
दुख-कष्ट मानुष की देह ने सहा अब तक
पौधे में आत्मा महसूस हुई
जब उखड़ी नींव मेरी
हूँ में निशक्त
अब कैसे सवांरू तुम्हें?
यह शरीर कमज़ोर लिए
आशाओं की बेड़ियां पहन रखी है
वरन् तुम हो तो है दुख रिहा मुझसे
अब मुझमें बस ख्याल यही
कि हय !
तुमसे मिला मुझे यह देह
बनके राख मिले उस मिट्टी में
जहाँ से उगे तुलसी मेरी
वो भी दिया में बनूँ
जो चोखट पर जले मैया तेरी
वहीं तुलसी मेरी………
– शिवम राव मणि