तुलसी गीत
जब दो बूढ़े हाथ, तुम्हारे चौरे पर दीपक धरते हैं।
मुझे बताओ तुलसी मैय्या, तुमसे क्या माँगा करते हैं ?
इन हाथों से बचपन वाले सपने, कब के छूट चुके हैं।
जिनमें यौवन के दिन संवरे, सारे दर्पण टूट चुके हैं।
जिनके साथ गुजारा जीवन वो अब यादों में मिलते हैं।
किस्मत के निर्दयी लुटेरे, सारे साथी लूट चुके हैं।
अंतिम पग पर अपने मन को, आखिर किस भ्रम से भरते हैं ?
तुम्हीं बताओ तुलसी मैय्या, तुमसे क्या माँगा करते हैं।
लगता होगा दीपक रखने से, बेटों की साख चलेगी।
या फिर है उम्मीद इन्हें कि दूध-पूत से बहू फलेगी !
खुद से दूर बसी बेटी की, सुख और शांति मनाते होंगे।
लेकिन क्या ये सब होने से, नहीं हृदय को कमी खलेगी?
क्या मन के एकाकीपन को, आरति के स्वर से हरते हैं?
तुम्हीं बताओ तुलसी मैय्या, तुमसे क्या माँगा करते हैं।
तुलसी बोली, “सब ने पाया, जो उन को मिलना निश्चित था।
ये जीवन भर समझ न पाए, पाना और खोना निश्चित था।
निस्सहाय, दुर्गति से डरती, मृत्यु माँगती है ये बुढ़िया।
जबकि मृत्यु नियत है वैसे, जैसे ये जीना निश्चित था।”
सुनो बताती तुलसी, “मानव, खोने के दु:ख से डरते हैं।”
इसीलिए ये हाथ हमारे, चौरे पर दीपक धरते हैं।
/तुम्हीं बताओ तुलसी मैय्या, तुमसे क्या माँगा करते हैं।
©शिवा अवस्थी