तुम…
कितने भी काट लो तुम,
तुम्हारे नख तो बढ़ रहे हैं,
नित्य ही जाने कितने,
तुम पर कलंक लग रहे हैं…
जंगल से निकल तो आये,
सभ्यता का लेकर तमगा,
पशुता के वही कर्म तो,
तुम में अब भी दिख रहे हैं…
तुमने घर भी बना लिया,
बड़ा समाज गढ़ लिया,
मनुष्यता के लेकिन गुण,
कहाँ तुम में दिख रहे हैं…
तुमने तो कुछ नहीं छोड़ा,
हर विश्वास को तोड़ा,
वो जानवर ही अब तो,
तुमसे श्रेष्ठ लग रहे हैं….
विवेक’वारिद’*