तुम..
आ कर ख्वाबों में मेरे
गलबहियाँ
डाल देती थीं तुम,
मरमरी वज़ूद तुम्हारा
सिमट जाता था
मुझ में,
आज भी महक तुम्हारी
मचल उठती है
साँसों में मेरी
जाग जाता हूँ मैं
फ़िर नींद से अपनी
इन्तिज़ार में,
कि फ़िर नींद आएगी
और आओगे तुम भी
पर,
अब न नींद आती है
और न तुम
और, मैं जागता रह जाता हूँ हर रात दर रात
तुम्हें छूने के लिए
हिमांशु Kulshrestha