तुम
!! श्रीं !!
तुम
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मन के पन्नों पर बिखरी है
याद तुम्हारी पारे जैसी
हर कण में तस्वीर तुम्हारी
मुझे दिखाई देने लगती
झोंका कोई जब भी मुझको
करता है स्पर्श कभी तो
जागृत हो जाती अंतस में
छुअन रेशमी अंगुलियों की
रेखा चित्र तुम्हारा नभ में
मुझे दिखाई देने लगता
कर सकता महसूस तुम्हें मैं ।
केश तुम्हारे लहराते से
आमंत्रण सा मुझको देते
और ठगा सा मैं रह जाता
खो जाता हूँ उन पृष्ठों में
खुले हुए जो अंतस तल में
जिन पर उभरा चित्र तुम्हारा
मौन बुलावा देता मुझको
याद तुम्हारी बहुत सताती
छोड़ गये क्यों मुझे अकेला
इस वीरानी-सी दुनियाँ में
राह तुम्हारी देख रहा हूँ
सचमुच बहुत अकेला हूँ मैं ।
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-महेश जैन ‘ज्योति’
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