तुम
लिखते लिखते रह ज़ाऊंगी
मै तुम को ना लिख पाऊंगी
कौन हो तुम और कहां मिले
मैं सब को क्या बतलाऊंगी
नारी हूं संकोच है मुझ को
रिशते कैसे सुलझाऊंगी
पुरूष ज़ो होता परेयसी की खातिर
करता नये नये बखान
उस के रूप से आनंदित हो
बन जाता कवि रसखान
अब ये ज़ाना क्या आनंद है
मीरा का कृष्ण का होने में
चुपके तुम भी रहते मेरे दिल के कोने मे
ज्ञात नही है लेकिन मुझ को
क्या मैं भी याद हूं तुझ को
मेरे मन में बसे हो कृष्णा
क्या अंतर है
तेरे ना होने या होने में
अंत में ये ही कह जाउंगी
रिशते मैं ही सुलझाऊंगी
ना मैं सब को बतलाऊंगी
बडी चुभन है हृदय में मेरे
तुझे पा कर और पा कर खोने में
चुपके तुम भी रहते मेरे दिल के कोने में