तुम हो कहाँ
किसी ने कहां
तुम मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरिजाघर,
में हो,
मैंने कहा,
तुम्हें तो कण-कण में बताने वाले लोग हैं
तुम हो कहाँ,
पेड़ पौधों में,
पशु पक्षियों में,
बहते नदी नालों में,
या फिर आकाश,
पाताल,
धरा पर भटकते जीवों में,
प्रकृति द्वारा सौंपी व्यवस्था में,
जो तुम्हारी रक्षक है,
जिन्हें पंच-विकार कहा गया,
या वातावरण में,
जंगल में,
तुम हो कहाँ ?
जीव में,
जीवन में,
प्रेम और तोहफों में,
दया में
धर्म में
अहिंसा में,
कुटुम्ब में,
त्याग में समर्पण में,
तुम हो कहाँ.
घटना में,
वारदात में.
तुम्हें आभास है,
व्यवहार और व्यवसाय में,
दमन में,
प्रकट हो,
छुपे हो,
अभ्यास से,
तुम कहाँ हो,
आचार-विचार में,
किताबों में ,
लेखों में,
या फिर प्रवचनों में.
या फिर तुम बिषय हो,
इंद्रियों में,
सूर्योदय
चंद्रोदय
ग्रहण या फिर गृहण में,
तुम हो कहाँ,
जल,पृथ्वी, अग्नि, वायु, आकाश में,
प्रेम प्रतीति खुद से नहीं,
इसलिये तुम नहीं हो,
कहीं नहीं,
भूख,प्यास, वस्त्र,
तुम्हारी अपनी जरूरत है,
देखों,
कहीं आसपास हो,
सार्वजनिक स्थल,
जहाँ तेरा वास है,
बस वही तेरा सुवास है.
होती हो गर वहां भी तोहमत,
तो तुम खाक हो.
होना है खाक सबको,
बस उसी खाक और राख में,
आप और हम दोनों,
आसपास नहीं,
एक साथ हों.
फिर कहाँ खोजे,
सब बकवास हैं.
हंस महेन्द्र भारतीय