तुम सर्वदृष्टा मैं इंसान तुच्छ
अपनी जरूरत के मुताबिक
सबने ढाला अपना खुदा
अपने अपने सांचे में
दूर दुनिया के कोनों में नहीं
आस पास घर घर में अलग
आदमी आदमी के लिए जुदा
कितनी कमजोर कामचलाऊ
तस्वीर बनाई है
आदमी ने अपने खुदा की
जरुरत के मुताबिक
ईश्वर के प्रति भी
बदलते उसूल बदलते रिश्ते
बदलते धर्म और इन्सानी सोच
बदलते संबोधन, बदलता भगवान
आदमी की मर्जी के मुताबिक
चढ़ता उतरता हंसता रूठता भगवान
जहाँ जब जैसी जरूरत पड़े
वैसी शक्ल में खड़ा भगवान
जहाँ जैसे संभव लगे
वैसे पूजा जाता भगवान
भगवान के नाम पर सभायें
भगवान के नाम पर घोषणायें
भगवान के नाम पर प्रबन्धन
उसी के नाम पर
उपदेश नीति भाषण संभाषण
उसी के नाम पर लूटपाट
उसी के नाम पर अत्याचार
बलि अन्याय अपराध अधर्म
उसी के नाम पर ढकोसलों की
रंगीन चादर अभेद्ध मुखौटा
जबरदस्त बनावट-नाटक
कुछ लोगों को
अंधा नजर आता खुदा
कुछ लोगों को
बहरा लंगड़ा लूला अधूरा
संकीर्ण क्षणिक दिखता भगवान
आदमी को अपनी तरह
अपनी संकीर्णताओं की तरह
अपनी कमजोरियों की तरह
और तद्नुसार पूजा अर्चन इबादतें
खुदा !
काश कभी तुम भी अपने
धैर्य का बाँध तोड़ते
कभी तुम भी आदमी की तरह
संकीर्ण सोच में उतर आते
शायद होश में आ जाता आदमी
आदमी,जो खुद को तुम्हारी
सर्वोतम कृति बताता आया है
उसी के बदकर्मों पर
न जाने तुम कैसे
परदा डालते हो
कैसे माफ कर लेते हो
आदमी की बेईमानी
आदमी की हैवानियत
आदमी की शैतानियत
और आदमी का घिनौनापन
प्रभु !
तुम सर्वदृष्टा सर्वस्व भगवान
मैं निरा तुच्छ इन्सान
मुझे नहीं मालूम
क्या प्रश्न कर रहा हूँ
कहाँ हाथ-पाँव चला रहा हूं
इस विकट अंधकार में,
यह भी नहीं मालूम
कि तुम्हारे और मेरे बीच
कितना पारदर्शी रिश्ता है
कितना ढाल चुका हूँ मैं तुम्हें,
संकीर्ण सोच के सांचे में
अपनी सुविधानुसार।
-✍श्रीधर.