तुम समझती क्यों नही माँ?
तुम्हारे एक आंसू की बूंद
मेरेे दिल को चीर देती है,
बढ़ा मेरी पीर देती है
तुम समझती क्यों नही माँ?
तुम्हारी बाते महक गयी थी
तुम्हारी आँखे चहक गयी थी
जिस दिन बहू का दीदार हुआ था
जैसे मुझसे ज्यादा तुझे
उससे प्यार हुआ था,
वह काला ही दिन था माँ
जब मैं बावला सा होकर
पक्षपाती सा बनने चला था ,
भूल गया था कि तेरे आँचल
मे पला था!!
तू समझती क्यों नही माँ?
तू दिन भर रोई थी,
एक पल न सोई थी
बदला सा, गैर सा
बेकार ही सही तुमसे मिलने मैं,
तुम्हारे पास आया था
पर आह मेरी किस्मत!
तूने छाती से लिपटाया था!
उस दिन कितना कोसा था खुद को
तू समझती क्यों नही माँ?
परिस्थितियों ने मुझे तो बदला,
पर तू ना बदली
इस बंजर जमीन पर
तुम नीर सी बह निकली,
मैं प्रेम में बटता गया
पर नियत तेरी बटी नही,
कभी फेरी भी निगाहे मैंने
पर नज़रे तेरी हटी नही
मुझे समा ले तू खुद में, जो अंश हूँ तेरा
तू समझती क्यों नही माँ.. .
– ©नीरज चौहान