तुम यानी मैं
तुम, यानि मैं।
कुछ कहना
तो आहिस्ते से कहना
खुदा से कभी दो लफ्ज़ भी ।
कोई नहीं, मगर खुदा सुनता है
हर वो ख्याल
जो मन ही मन बुदबुदाते हो तुम,
किसी से जाहिर नहीं करते
मगर फुसफुसाते हो तुम।
कभी घुटते हो अन्दर ही अन्दर
कभी खुश होते हो, जैसे खुला समन्दर।
कभी दुखी हो जाते हो बरसात की तरह
कभी चुप हो जाते हो समझदार की तरह।
कभी बातों की तो लड़ीयां लगाते हो,
कभी खामोश अनजान रह जाते हो ।
तन्हा इक लम्हा भी खोजते हो
तकदीर को तुम बार बार कौसते हो ।
कभी हौसलों को बाँध,
खुद ही तोड़ते हो,
हार गया हूँ मैं,
ये भी कहते हो ।
फिर खफा हो जाते हो, खुदा से तुम
क्योंकि अनजान नहीं हैं वो,
मगर क्यों है गुमसुम ?
ना कुछ कहता है, ना कभी आता है,
परेशां मुझको ना कभी हँसता है ।
छोड़ दिया है अकेला इस शहर में
हो गया हूँ बेकस सबकी नज़र में,
मन ही मन एक सवाल उठता है
खुद ही जवाब ढूंढता हूँ,
और एक मलाल रह जाता है ।
कि शायद कभी तो सुने
आ मेरे पास बैठे,
तो कहूँ मैं हाल-ए-दिल अपने,
मगर तब तक.
तुम, यानी मैं
कुछ कहना
तो आहिस्ते से कहना
खुद से कभी दो लफ्ज़ भी,
क्योंकि कोई नहीं
मगर खुदा तो सुनता है ।