तुम मेरे दिल की धड़कन हो।
तुम मेरे दिल की धड़कन हो।
मेरे जीवन की बगिया को तुमने अपने श्रम से सींचा।
सूखी बंजर सी धरती पर हरीतिमा का मंडप खींचा।।
पतझर जैसे इस जीवन में तुम मधुमास सरीखी आयीं,
साज बेसुरे ही थे सारे, तुमने स्वर लहरियां जगाईं,
जीवन पथ पर जो भी साधा, पृष्ठभूमि में तुम साधन हो,
तुम मेरे दिल की धड़कन हो।
जीते तो पहले भी थे पर, जीवन जीना तुमसे जाना,
तुमसे ही सीखा अभाव में भी मिलकर आनंद उठाना।
घर तो पहले भी था लेकिन बेजुबान छत दीवारें थीं,
तुमने इनमें रंग भर दिये, शुरू किया इनसे बतियाना।
दीवारें भी बोल रही हैं तुम ही इस घर का जीवन हो,
तुम मेरे दिल की धड़कन हो।
मैं पर्वत के शुष्क शिखर सा, तुम सरिता सी कल कल बहतीं,
कभी मचलतीं, कभी ठहरतीं, कभी प्रपात बन झर झर झरतीं,
कभी सघन वन, कभी तपोवन, कभी तीर्थ बन दिया आचमन,
मुझ नीरस से शैल शिखर के कण कण में स्पंदन धरतीं,
मेरे मरुस्थल से जीवन में, तुम सुरभित नंदन कानन हो,
तुम मेरे दिल की धड़कन हो।
मैंने जो जो सपने देखे, तुमने उनमें पंख लगाये,
जो सोचा साकार कर लिया, चाहे कितने कष्ट उठाये,
जब जब भी बाधाएं आईं, तुमने नव उल्लास जगाया,
जब भी तपिश धूप की आई, झट तुमने ऑंचल फैलाया,
कर्मठता से छुए शिखर जो, उनके पीछे तुम्हीं लगन हो,
तुम मेरे दिल की धड़कन हो।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।