तुम में मैं…. विचारों की एक श्रृंखला
यदि वह विचारों की तलहटी में उतरने की चेष्टा भी करें तो शिखर का अभिमान उसे उतरने नहीं देता। उसके आस-पास का वातावरण उसे ऐसा करने से रोकने हेतु भिन्न-भिन्न प्रलोभन देता है। कभी समाज में अपनी प्रतिष्ठा तो, कभी लोक-व्यवहार में काम आने वाले रिश्ते और कभी-कभी तो मर्यादा की खोखली जंजीरे भी विचारों को कसकर पकड़ लेती हैं।
देखा जाए तो मर्यादा का संदर्भ ही व्यक्ति गलत समझ बैठता है। जिसका उपयोग वह अपनी सुविधानुसार करता है।
यदि बात स्वयं की होती है तो मर्यादा बेड़ियाँ नजर आती है और किसी अन्य के विषय में हो तो जीवन की अनिवार्य शर्त। व्यक्ति का यह दोहरा मापदंड ही उसे दोराहे पर खड़ा रखता है। यदि वह विचार सुनिश्चित करेगा तो स्थान निश्चय ही सुनिश्चित रहेगा।
स्वयं के भीतर किया जाने वाला मनन व्यक्ति के गुरु के समान है। जो सदैव उसका पथ प्रदर्शित करते हैं। यदि किसी अन्य से राय लेने का अनुभव हितकर ना रहा हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि आप स्वयं के भी शत्रु हो। अंतर्मन द्वंद अवश्य करता है किंतु सदैव उचित के पक्ष में ही निर्णायक होता है।
– जारी है….