तुम में मैं… विचारों की एक श्रृंखला
आज अचानक बैठे- बैठे यूँ ही ख्याल आया कि हर व्यक्ति सोचता है कि वह स्वयं में अलग है… औरों से कुछ भिन्न है… उसमें कुछ बात ऐसी है जो औरों से उसे अलग करती है… उसकी अपनी एक अलग पहचान है।
देखा जाए तो यह सच भी है… पर क्या यह पूरा सच है… शायद नहीं। कारण कि हर एक व्यक्ति कहीं ना कहीं भीतर में कुछ ऐसा संभाले हुए हैं कि वह बात उसे नायाब बनाती है।
घटनाओं, विचारों, परिस्थितियों पर सबका अपना अलग नजरिया होता है, परंतु यदि गहरे से समझा जाए तो कहीं ना कहीं सभी एक- दूसरे से जुड़े हुए हैं। पता नहीं क्यों विरोधाभास की स्थिति यह है कि स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए व्यक्ति अपनी अलग पहचान को सर्वोपरि मान्यता देता है। लेकिन कहीं ना कहीं असहमति के भीतर सहमति का एहसास होता है… ना होने के भीतर हाँ की हामी छुपी हुई होती है। ऊपरी मन से चाहे किसी भी वाद-विवाद को करने के लिए व्यक्ति क्यों ना अपनी बात को कितना ही श्रेष्ठ सिद्ध करें, किंतु भीतर से वह स्वयं भी जानता है कि यह व्यर्थ है….।
अलग पहचान सिद्ध करने की जद्दोजहद व्यक्ति को उचित-अनुचित के परे ले जाकर खड़ा कर देती है। जिस स्थान से वह स्वयं को चोटी पर और अन्य को तलहटी में महसूस करता है। उसकी चेष्टा स्वयं को सही सिद्ध करने मात्र तक सीमित होती है, विषय के व्यापक पहलू तक सोच की संकीर्णता उसे पहुँचने नहीं देती।
यदि वह विचारों की तलहटी में उतरने की चेष्टा भी करें तो शिखर का अभिमान उसे उतरने नहीं देता। उसके आस-पास का वातावरण उसे ऐसा करने से रोकने हेतु भिन्न-भिन्न प्रलोभन देता है। कभी समाज में अपनी प्रतिष्ठा तो, कभी लोक-व्यवहार में काम आने वाले रिश्ते और कभी-कभी तो मर्यादा की खोखली जंजीरे भी विचारों को कसकर पकड़ लेती हैं।
देखा जाए तो मर्यादा का संदर्भ ही व्यक्ति गलत समझ बैठता है। जिसका उपयोग वह अपनी सुविधानुसार करता है।
यदि बात स्वयं की होती है तो मर्यादा बेड़ियाँ नजर आती है और किसी अन्य के विषय में हो तो जीवन की अनिवार्य शर्त। व्यक्ति का यह दोहरा मापदंड ही उसे दोराहे पर खड़ा रखता है। यदि वह विचार सुनिश्चित करेगा तो स्थान निश्चय ही सुनिश्चित रहेगा।
स्वयं के भीतर किया जाने वाला मनन व्यक्ति के गुरु के समान है। जो सदैव उसका पथ प्रदर्शित करते हैं। यदि किसी अन्य से राय लेने का अनुभव हितकर ना रहा हो तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि आप स्वयं के भी शत्रु हो। अंतर्मन द्वंद अवश्य करता है किंतु सदैव उचित के पक्ष में ही निर्णायक होता है।
अनिर्णायक स्थिति में बने रहने से अच्छा है… स्वयं से प्रश्नोत्तर किया जाए और मन की उस तह तक प्रश्न पूछे जाएं जहाँ तक उत्तर आपको संतुष्टि प्रदान ना कर दें। जरूरी नहीं है कि उम्र का अनुभव किसी और के लिए प्रेरणा का कार्य ही करें। अनुभव का महत्व अवश्य है किंतु किसी एक गलत अनुभव का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता कि जिन सीढ़ियों से आप गिरे हो दूसरा भी उन्हीं सीढ़ियों पर आकर फिसले। जीने की यह शर्त नहीं होनी चाहिए कि हमसे सीखो। गलत अनुभव गलत आशंका को जन्म देते हैं। चुनौतियों को लेकर अनुभव व्यक्त किया जा सकता है किंतु हर व्यक्ति का एक ही परिस्थिति में भिन्न-भिन्न व्यवहार हो सकता है। सारा खेल भय का है। भय अपने साथ आशंका, दुश्चिंता, असफलता लेकर आता है। यदि गिरोगे नहीं तो खड़े होने का हुनर कैसे आएगा। जीवन अपने तरीके से सबको सिखाता है। सीखने की गति भिन्न-भिन्न हो सकती है। कोई कार्य करने से पूर्व विचार करता है और कोई करने के पश्चात। फर्क ढंग का है महज।