तुम मुझे भुला दोगी शायद
तुम मुझे भुला दोगी शायद
पर मैं नहीं भूल पाउँगा।
न तुम्हारी आँखे,
जिनसे चाँद रोशनी लेता था।
न तुम्हारी बातें,
जो शक्कर से भी मीठी थी।
न तुम्हारे दाए हाथ की वो छोटी उंगली,
जिसे मैं बाए हाथ की उंगली से पकड़ता था।
वो साँवला रंग तुम्हारा,
जो मेरी आँखोँ को भाता था।
तुम्हारी कान की वो नर्म पालियाँ,
जिन्हें मैं चूमता और तुम सिहर जाती थी।
तुम मुझे भुला दोगी शायद,
पर मैं नहीं भूल पाउँगा।
वो सुराहीदार गर्दन तुम्हारी,
जिसपे दुपट्टा आराम करता था।
वो पैर तुम्हारे जिनमें,
पाज़ेब बड़ी खुश रहती थी।
वो गुदाज कमर तुम्हारी,
जिसपे चिमटी काटते ही तुम गुस्सा करती थी।
वो होंठ तुम्हारे जिनपे मैं अपने होंठ रख देता था,
और तुम अपनी आँखें बंद कर लेती थी।
तुम मुझे भुला दोगी शायद,
पर मैं नहीं भूल पाउँगा।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’