“तुम भी ना’
लघुकथा
तुम भी ना..
रात से सुबह तक मैं चहलकदमी करती रही.. मेरे कानों में शिल्पम की उस दिन की चीखती आवाज़ें बार बार गूॅंज रहीं थीं..
“अभी आपकी सास की सेवा करूं, फिर आपके पति की सेवा करूं , तब तक आप लटक जायेंगी मेरे गले में.. रिश्तों की दुहाई देते हुए..मैं बस आपकी और आपके खानदान की सेवा करने के लिए नहीं बना हूॅं माॅं ” कहते हुए शिल्पम पैर पटकते हुए जा चुका था..
सहसा मैं चौंक पड़ी.. सामने गेटमैन एक लिफाफा लिए खड़ा था। मैंने इनकी राइटिंग देखी तो झट से उसको खोला..”अरे! इनका ख़त! मैंने थरथराते हाथों से अंदर से ख़त निकाला और पढ़ने लगी..
“प्रिय शकुंतला, जब तक ये पत्र तुम तक पहुॅंचेगा, मैं जला दिया जाऊॅंगा। तुम्हें तो पता है, मैं भारत नहीं आ पाऊॅंगा, कोरोना मुझे लगभग खत्म कर चुका है। मैंने आनलाइन सारी संपत्ति तुम्हारे नाम कर दी है। शिल्पम ने उस दिन तुमसे बहुत झगड़ा किया था, मेरे लिए वो असहनीय था। मेरे दिमाग में उसकी कही एक-एक बात गूॅंजती रहती है। मैंने आनलाइन लिखा-पढ़ी करके उसको धन-संपत्ति से बेदखल कर दिया है। तुम और अम्मा मेरे अनाथालय की देखभाल करना और उन सब बेसहारों की माॅं बनकर रहना” इनकी लिखी आख़िरी पंक्ति पढ़ते -पढ़ते “अरे! तुम भी ना..” कहकर मैं फूट-फूट कर रो पड़ी।
स्वरचित
रश्मि लहर
लखनऊ