तुम पुरमासी के चाँद सी…
तुम कश्मीर के जैसी सर्द सी
मैं तपती दुपहरी की उमस सा
तुम पंच नदियां मीठी सी
मैं, खारा सागर की लहर सा
तुम गंगा जमुना सी पावन हो
मैं हूँ सरस्वती के जैसे गायब सा
तुम ऋतु हो चौमासे सी
मैं हूँ उदास किसी पतझड़ सा
तुम हो उमंग एक नई सी
मैं एक चमन हूँ उजडा सा
तुम प्रेम की एक पुस्तक सी
मैं बिखरा कागज कोरा सा
तुम उत्तम! पुष्प में गुलाब सी
टेहनी में उसकी मैं काँटा सा.
तुम एक कली खिलखिलाती सी
मैं हूँ मन रूहासा सा.
तुम गजल हो कोई पूर्ण सी
मैं हूँ “शेर्” एक अधूरा सा.
तुम रौद्र रूप हो चण्डी का सी.
मैं धुन मे मगन अपनी शंकर सा.
तुम हो पुरमसी के चाँद सी..
मैं हूँ रात काळी मावस् सा..
मैं रात काळी मावस् सा..
मैं रात काळी मावस् सा..
मुद्गल..