तुम पराई “हो-ली”
तुम पराई “हो-ली”
प्रिये !
तुम तो पराई “हो-ली”:-
छिपुं विस्मृती के अंधकार में,
उसके पहले हृदय पलट पे,
मेरे प्रणय-पल के,
प्रथम मिलन क्षण;
अंकित कर दो या,
रोक दो समय की धारा को;
और मुझे भूल जाओ,
कुछ ऐसा करो कि-
तुम याद ही नहीं आओ!
खुश रहो इतनी कि-
मुझे अच्छा लगे, दुःख संग जीने में,
प्रिये!
तुम तो पराई “हो-ली”:-
मत भरना आँखों में पानी,
इनमें मुस्कान बनाये रखना ,
मेरी छोड़ो, मैं थक चुका,जी कर,
अब यादों मे ,मरना सीख गया,
जीवन को अभिशाप मान चुका,
ह्रदय मे “हो-ली” मना चुका,
लिखने लगा विरह-का लेखन;
कैसा होता वेदना मे प्रेमी-मन,
क्यों कुछ नहीं रहता स्मरण,
हृदय विकलता सहकर सुस्थिर
प्रिये!
तुम तो पराई “हो-ली”:-
तुम अपनी सोचो,परितोष पाने;
लिखो मुझे सन्देश तुम्हे भूलाने,
जीवनकाल के मध्य पहर में,
किस सुख की अवधारणा संजोये;
अब स्वप्न देखता जागकर रातें,
मैंने चाहा था मिलन की वेला;
बाहू-लता के आलिंगन मे लेने,
शरमा भाग गई;मेरी नहीं “हो-ली”!
वह बात काँटे सी चुभती सिने मे,
चुभन है मन में पर हूं निश्चुप
प्रिये!
तुम तो पराई “हो-ली”:-
क्यों,कैसे,
किस की “हो-ली”:-
सवाल हुवा अर्थहीन,
निर्वाक,निरूप;
उन क्षण की उपासना,जीने कि शैली;
मौन मे विद्रोह ज्वाला चाहे तेज़ “हो-ली”,
तुम खुश रहो ,तुम्हारी चादर न हो मेली!
तुम आबाद रहो
प्रिये तुम जब पराई “हो-ली” ।
सजन