‘तुम नहीं सुधरोगे’
तुम आज भी नहीं आए न !
मैंने पूरा एक घंटा इंतजार किया तुम्हारा। तुम्हें क्या पता ये इंतजार क्या होता है,कभी
करना नहीं पडा़ न इसलिए।
कितनी मुश्किल से गुजरा ये घंटा ..वो भी भरी बरसात में।
रास्ते में पेड़ के नीचे खडे़ रहना, आते-जाते लोगों की प्रश्न भरी निगाहों को सहना आसान है क्या? इससे बचने के लिए बेवजह सड़क पर चहलकदमी करती रही ,कभी इधर तो कभी उधर। कितनी बार फोन किया पर तुम से फोन तक न उठाया गया। अरे! कम से कम मैसेज ही कर देते कि नहीं आ रहा हूँ। ये सोचकर बार-बार मेरे कदम रुक जाते थे कि मेरे लौटते ही आ गये तो ….कितना परेशान हो जाओगे…
पता नहीं क्या बात हो गई ..बारिश भी हो रही है और अंधेरा भी ।मन में बुरे बुरे विचार उठ रहे थे।बारिश और तेज होने लगी । सड़क पर भी आना-जाना कम हो गया था..तब मैं निराश होकर लौट आई। इतने साल बाद मिलने आ रहे थे पर तुम्हारी आदत अभी भी नहीं बदली।तुम नहीं सुधरोगे।