तुम थे जीवन में रंग था
तुम थे जीवन में रंग था,
उमंग थी उचंग थी।
तुम ले गये सब अपने साथ,
बस छोड़ गये हो विरासत में शून्य।
इसी शून्य के सहारे,
मुझे ज़िन्दगी का बोझ ढोना है।
जीवन भर रोना है,
भव से पार होना है।
अधिक क्लांत होने पर,
चित्त अशांत होने पर।
तुम्हारी यादों की पूँजी से,
कुछ ख़र्च लूँगी।
मैं बरतूँगी मितव्यता,
यह चुक न जाये अन्यथा।
और मैं हो जाऊँ,
निपट कंगाल।
निवेदन है तुम यादों में आते रहना,
मेरा यह अदृश्य धन बढ़ाते रहना।
ऐसा न हो तुम मुझे भूल जाओ,
मैं भी तुम्हें भूल जाऊं किसी स्वप्न की तरह।
जयन्ती प्रसाद शर्मा