तुम तो बस बेटी थी !
न तुम चमार थी,
न वो राजपूत या ब्राम्हण था,
न वो आगरा वर्ग का था,
न तुम पिछड़ा वर्ग की थी,
न तुम्हें वर्ण व्यवस्था की आग में तपाया गया
न राज सुख के लिए दरबार में नचाया गया
तुम तो बस मांस का जिन्दा टुकड़ा थी
महकती, खुसबूदार, लज्जतदार वोटी थी
और वो शदियों से नरभक्छी
जिनके मुहों को
ताज़ा नरम गोश्तों का स्वाद लग गया है
जिनके सर पे हवस का बुखार चढ़ा है
महलों से ही नहीं आते वो,
वो कभी-कभी झोपड़ियों से भी निकलते हैं
अलमस्त से शिकारी शिकार ढूंढते हैं
बोटियाँ नोचते हैं, फिर छिप जाते हैं
स्वेत रेशमी वस्त्रों के पीछे
जो छद्म भेष धरे रहते हैं
हमारे तुम्हारे रक्षक होने का
जो असल में भक्षकों के रक्षक होते हैं
और हम ढूंढते रह जाते हैं
अपनी टीसों और आहों में
जख्मों के गहरे दरारों में
तुम तो बस बेटी थी,
अच्छी, प्यारी नाजुक सी बेटी
जो कभी माँ बनती किसी बेटी की
‘हाय’ क्या करूं ? कैसे बचाऊं
अपनी जाई की जात को ?
… सिद्धार्थ…