तुम क्या जानो
तुम क्या जानो? मेरे भीतर,
क्या-क्या पलता रहता है!
इश्क़, दर्द या प्यार-मोहब्बत?
क्या-क्या चलता रहता है!
उनकी मजबूरी से मेरी
आँतें ऐंठा करती हैं,
जोड़ी भर आँखों की रातें,
दिल में बैठा करती हैं,
मिट्टी की झोपड़पट्टी का
दीपक, मुझसे कहता है,
ऊँची पगड़ीवालों के घर,
क्या-क्या चलता रहता है!
तुम क्या जानो……………..!
जिनके दोनों हाथ उठाए है,
धरती का भार, अहो!
उनको क्यों दे रखे हो तुम,
जख्मों का संसार कहो?
जिनके दिल का हाल नहीं
कोई भी सुनने जाता है!
कलम बताती उनके मन में
क्या-क्या गलता रहता है।
तुम क्या जानो……………..!
चलो हमारे संग,तुम्हें मैं
जहाँ – जहाँ ले जाऊँगा,
प्यास ,घुटन,मजबूरी उनकी
आँखों में दिखलाऊँगा,
ज़ुमला, तेरे वादों की
असलियत हमें बताता है,
दिल में है कुछ और, जबाँ पर
क्या-क्या चलता रहता है!
तुम क्या जानो……………..!
—कुमार अविनाश केसर
मुजफ्फरपुर, बिहार