‘तुम क्या जानो’
‘तुम क्या जानो?’
कौन समझेगा
मेरे अंतस की घुटन को
तानों की चुभन को
श्वास की तपन को ?
भोर में
जब लाली की रौनक
छितराती है,
दूर बगिया में
खिली कोई कली
कुम्हलाती है।
तुम क्या जानो –
नीलांबर में
छायी संध्या
जब रागिनी सुनाती है,
तब नयनों में नीर भरकर
तरिणी में झाँकती
गोरी की छवि
धुँधलाती है।
तुमने कहा था-
दायित्व निभाने आओगे,
भूल क्रिया-कलापों को
मेरे संग मुस्काओगे ।
झूठे उन वादों को जीकर
सपनों में मैं खोयी हूँ,
यादों के
ख़त रखे सिरहाने
रातों को मैं रोयी हूँ।
कभी बनी मैं चाँद
कभी खामोश निगाहें,
उठे रह गए हाथ
दे रही स्वयं दुआएँ।
टूट गया भ्रमजाल
हँस रही भावुक होकर,
हारी हूँ पर आज
जीत तुमसे जीवन भर।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)