तुम क्या जानो
समझेगा वही इसको जो दीवाना किसी का
कभी हुआ भी है भला ये जमाना किसी का।
रहते हैं जो हवेलियों में ठाठ-बाट से
उनको न सुहाता है गरीब खाना किसी का।
थाली में जूठा छोड़ना है शान में जिनकी
उनको दिखे न भूख से बिलबिलाना किसी का।
कपड़ों से भरी रहती हैं आल्मारियां जिनकी
उनको नहीं पता है कंपकंपाना किसी का।
आंख खोलते ही जिसको दिखे हीरे औ जवाहिर
उसे न रुलाएगा ठोकर खाना किसी का।
आंखों में मुरव्वत है और दिल में भी है रहम
वो कतई न चाहेगा दिल दुखाना किसी का।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान)
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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