तुम्हें अपने ऊपर गुमाँ बहोत है तुम्हारे जैसे इंसा बहोत है
तुम्हें अपने ऊपर गुमाँ बहोत है
तुम्हारे जैसे इंसा बहोत है
कल तक जिसे इंसा होने का फक्र था
आज उस बस्ती में शैतान बहोत है
गैरों की बस्ती में ये डर कैसा
अपनी बस्ती के दुश्मन बहोत है
हार जाते है अक्सर अपनो के समक्ष
अपनों में छिपे सिकन्दर बहोत है
दिखावे की दुनिया है ज़नाब
चेहरों के ऊपर मुखोटें बहोत है
ज़िन्दगी की मज़बूरियां शहर खींच लाई
गाँव की मिट्टी में शहद बहोत है
किताबी ज्ञान आज भी अधूरा है
ज़िन्दगी की ठोकरों में सीख बहोत है
दवाएं आज भी बेअसर नज़र आती है
माँ की दुआओं में असर बहोत है ।
भूपेंद्र रावत
29।12।2019