तुम्हारी ज़रूरत
मुझे ज़रूरत नही,
यक़ीन मानों,
तुम्हें चाहने के लिए अब तुम्हारी ज़रूरत नही,
कभी था वो वक़्त,
जब इंतज़ार रहता था,
तेरा इन नज़रों को,
अब नज़रें बन्द करके भी हो जाता है दीदार तेरा अंदर कहीं,
हाँ, तुम्हें चाहने के लिए अब तुम्हारी ज़रूरत नही,
कभी दिन न कटते थे तुमसे मिले बिना,
रहता था दिल बेचैन दिन रात,
अब मिल जाते हो रोज़ ख़्वाबों में कहीं,
हाँ, तुम्हें चाहने के लिए अब तुम्हारी ज़रूरत नही,
कभी था डर की खो न दूँ तुम्हें,
कोई चुरा न ले तुम्हें मुझसे,
अब ज़हन में इस तरह बसे हो कि मैं मैं हूँ ही नही,
हाँ, तुम्हें चाहने के लिए अब तुम्हारी ज़रूरत नही,
यह मिलना, पाना, खोना
महज़ रिवायतें हैं ज़माने की,
जो रूह में बस गया हो,
उसे क्या ज़रूरत ढूँढने की और कहीं
हाँ, तुम्हें चाहने के लिए अब तुम्हारी ज़रूरत नही…..