तुम्हारी आँखें कमाल आँखें
ग़ज़ल
तुम्हारी आँखें कमाल आँखें, तुम्हारा हुस्न-ओ-जमाल आँखें
खिले कँवल ख़्वाबों के हैं कितने, तुम्हारी आँखें हैं ताल आँखें
बदन है शाही महल ये उनका, है इसमें दीवान-ए-ख़ास ये दिल
ये अबरू¹ महराब जिसके नीचे, खड़ीं हैं दो द्वारपाल आँखें
गुलाब आरिज़², हैं बर्ग-ए-गुल³ लब⁴, कमान अबरू, घटाएँ गेसू⁵
अब इस्तिआ’रा⁶ इन्हें में क्या दूँ , तुम्हारी हैं बे-मिसाल आँखें
परिंदा दिल का कहीं न हो जाए, क़ैद अब हुस्न के क़फ़स⁷ में
अदाओं के दाने डाल कर, ये बिछाये बैठीं हैं जाल आँखें
नहीं हुई है ये लब-कुशाई⁸, हुई मुकम्मल⁹ है गुफ़्तगू¹⁰ भी
जवाब आँखों ने दे दिये हैं, जो कर रहीं थीं सवाल आँखें
अगर उठीं तो ये साथ उठतीं, झुकी अगर तो ये साथ झुकतीं
ये साथ हँसतीं ये साथ रोतीं, हैं कितनी ये हम-ख़याल आँखें
ये आसमाँ, रेग़जार¹¹, जंगल, पहाड, झरना, नदी, समंदर
‘अनीस’ इतने हैं जज़्ब मंज़र, हमारी इतनी विशाल आँखें
– अनीस शाह ‘अनीस ‘
1. भौहें 2.गाल 3.फूल की पंखुड़ी 4.ओंठ 5.बाल 6.रूपक 7.पिंजरा 8.बात के लिए ओंठ खोलना 9.पूर्ण 10.वार्तालाप 11.रेगिस्तान