तुझसे लिपटी बेड़ियां
स्त्री तेरे पैरों में ही क्यों बेड़ियां हैं
सोने चांदी की हों
या लोहे तांबे की हों
बेड़ियां तो बेड़ियां हैं
इन बेड़ियों ने तुम्हें
सदियों से संस्कारों में कैद किया है
सभ्यता और संस्कृति के नाम पर
तुम्हारे अस्तित्व पर प्रहार किया है
हजारों बेड़ियों में जकड़ा पकड़ा है
बेड़ियां पैरों में होती हैं अनेक
नारी तेरे अस्तित्व को नकारती हैं
कभी सभ्यता संस्कृति के नाम की
कभी जाति और धर्म के नाम की
यह बेड़ियां ही तो होती हैं
जो अकेले स्त्रियों के नाम की होती हैं
समाज में स्त्री पुरुष दोनों की
प्रजातियां होती हैं फिर क्यों
सारी जिम्मेदारियां संस्कारों की
दुहाई सभ्यता और इतिहास की
स्त्रियों को ही क्यों मिलती हैं
स्त्री हो सभ्यता और संस्कृति की
बेड़ियों से जकड़ी हो
कबतक जकड़ी रहोगी
अन्याय कब तक सहती रहोगी
अपनें अस्तित्व को स्वीकार करो
नारी हो अपना सम्मान करो
अपनी पहचान बनाओ
जिम्मेदारियों का बोझ उठाओ
संस्कारों से भले ही श्रृंगार करना
लेकिन आत्मसम्मान जाग्रत रखना
उन बेड़ियों को तोड़ देना
जो तुम्हें सभ्यता और संस्कार सिखाती हैं
उनके नाम पर जो तुम्हारे अहम को कुचलती हैं
जो तुम्हें आगे बढ़ने नहीं देती हैं
कंधे से कंधा मिलाओ सखी
कर्तव्यपथ पर आगे आओ सखी
वो बेड़ियां जो तुमसे लिपटी हैं
उन बेड़ियों को ज्ञान से तर्क से
उतार आओ सखी
क़दम से क़दम मिलाकर रखो कदम
अपना सम्मान करो
ख़ुद पर विश्वास करो
जब तुम्हारा चरित्र पवित्र है
तो क्यों प्रमाण देती रहोगी
कब तक अपनी आत्मा को मारती रहोगी
_ सोनम पुनीत दुबे