तुझको तुम्है बताने की और जरूरत क्या
मन के बहते तलाब में बैठी हंश जैसी हो
चकमक करती धार तरंगों को उस किरण पुंज जैसी हो
तुझको तुम्है बताने की और जरूरत क्या
नय तौर में भी अंदाज एक देसी हो
बाग से आती खुशबु में गुलाब जैसी हो
पंखुरियो को ओढ़े एक नयाब जैसी हो
तुझको तुम्है बताने की और जरूरत क्या
नय तौर में भी एक ख्याल देसी हो
बड़ी मुद्दतो बाद पूछा
हाले दिल कैसी हो
मेरे लब्ज तो नहीं है अब चुभते
नजरों में महज कैद आगोशी हो
तुझको तुम्है बताने की और जरूरत क्या
संपूर्ण विरासत ही तेरी, तेरी ही ताजपोशी हो
ये रस्मो रिवाज, दस्तुर् जमाने का है
तुम कहाँ दोषी हो
सर चढ़ती हो बेवजह ही
बैचैन,बेसुध सरगोशी हो
तुम्है तुझको बताने की और जरूरत क्या
मधुशाला से बढ़कर, मदहोशी हो।
विक्रम कुमार सोनी – स्वरचित