तीन मुक्तक
१.
बहुत खाये- अघाये हो तुम, बहुत ज़्यादा मैं भी भूखी हूँ
करूँ क्या मैं… ?
मुझ तक पहुँचने वाली, रहमत की हर नदी ही सूखी है !
२.
जीता जगता सा ‘पिंजर’ पिंजड़े में कैद रहता है
हो कोई भी दौर,संसार औरत जिसको कहता है।
३.
नाक काटा था मेरी बहन का,तभी तो बीबी को थी उठाई
तब से जला रहे हो मुझको, सेंगर को आग क्यूँ नही लगाई।
बचाना हो गर मान बेटी-बहनों का, रावण ही बनना होगा
इस बार तुम्हें नकली रामराज्य का लंका दहन करना होगा।
हाँ-हाँ मैं ही रावण हूँ नीच, अधमी, पापी और राक्षस कुल का
तुम भले राम के बंशज बेटियों कि इज्जत हर बार दांव पे लगाई !
…सिद्धार्थ