तिरस्कार का दर्द
कंकड़ो का दर्द तुम क्या जानो साहब
सड़क किनारे तो पड़े हैं बगैर कोलतार के
कभी यही पहुंचा दिया था करते थे मंजिल पर तुम्हारी राह बनके
साहब ….
यह ना समझना इन कंकड़ो में अब जान नहीं
एक शख्स आया था
और ले गया संभाल के
बोलता था….
हम हर मोड़ पर एक रिश्ते को हम दफनाते चले गए
उखड़े हुए सारे कंकड़ो को उठाते चले गए
अभी जान बाकी है तुममें
तुम मेरेे काम आओगे
आखिरी मोड़ पर मेरी कब्र बनाने में…
उमेंद्र कुमार