तिरंगे की व्यथा
आजादी का पर्व है,
पर आज नहीं गर्व है।
सर नहीं झुका सलामी में,
झुका है यह बदनामी में।
तिरंगा पूछे सवाल है,
सूझता नहीं जवाब है।
पहुंचाया मेरी शान को,
एक नये आयाम पर।
पृथ्वी और आकाश में,
धरा के हर मानस पर।
दुनिया के हर कोने में,
जगाई भारत और भारतीयता की अलख,
फिर क्यों चिराग़ तले अंधेरा?
बनता हूं मैं शहीदों का गहना,
नहीं बन पाया लाज अपनी बेटियों का।
निर्वस्त्र नहीं हुई केवल मानवता,
निर्वस्त्र हुआ मेरा भी अस्तित्व,
कलंकित हुई मेरी मर्यादा।
किस मुंह से मेरे शान में कसीदे पढ़ते हो ?
जब किया मेरा बसेरा जाति और धर्म में।
कैद था मैं गैरों की जंजीरों में,
तुमने कैद किया मुझे भाषावाद और प्रांतवाद में।
जाओ,
आना उस दिन मेरे सजदे में,
जब हो जाना आज़ाद अपने संकीर्ण विचारों से।
आना उस दिन,
मिट जायेगी भूख कुर्सी की जिस दिन।
आना उस दिन,
जिस दिन नहीं होगी भारतीयता शर्मसार,
और होगी मेरी छवि हर भारतवासी में।