तिजारत नाम है इसका बड़ी झूटी सियासत है
तिजारत नाम है इसका बड़ी झूटी सियासत है
कोई सुनता न मुफ़लिस की फ़क़त इतनी शिकायत है
कहा अच्छे दिनों को था बुरे से दिन मगर आए
फ़क़त जुमले रहे जुमले बड़ी कडुवी हलावत है
बड़ा बढ़-चढ़ के बोला था करेंगे ये करेंगे वो
मगर काग़ज़ पे होती नाम की कैसी सख़ावत है
अमीरों को बहुत हैं फ़ायदें लेकिन ग़रीबों को
कभी मिलती नहीं राहत भला कैसी रवायत है
जहाँ का रंग बदला है अजब सा दौर ये आया
यही होती शरारत है सदा बिकती शराफ़त है
कोई है अल्पसंख्यक तो किसी को बाँटता मज़हब
शजर बोये हैं नफ़रत के नहीं दिखती मोहब्बत है
बचाते बेटियों को क्यों पढ़ाते जब नहीं इनको
बड़े मीठे से नारे हैं मगर नारी की आफ़त है
रखा जाता क़फ़स में है परों को नोचकर इनके
परिंदों को उड़ानों की नहीं मिलती इजाज़त है
कमल कीचड़ से ले आओ निकालो लाल गुदड़ी से
अरे ‘आनन्द’ कुछ बोलो इसी की अब ज़रूरत है
शब्दार्थ:- हलावत = मिठास, सख़ावत = दानशीलता
– डॉ आनन्द किशोर