तारीफों में इतने मगरूर हो गए थे
तारीफों में इतने मगरूर हो गए थे
जख्म भी हमारे नासूर हो गए थे
जब हम जमाने को खोजने निकले
हम खुद के अंदर से ही खो गए थे
लोगों के मुखौटों में ऐसे उलझे
हम भी पत्थर के हो गए थे
जब हमारी नब्ज टटोली गई
हम अपने ही अंदर सो गए थे
✍️कवि दीपक सरल☑️