तारा
तारा
चाह नही रवि बन जाऊँ
तपूँ झुलसूँ जलती जाऊँ
नित लड़ती रहूँ अंधेरों से
केवल चढ़ते पूजी जाऊँ
धरा बनूँ ये भी न चाहा
एक ही धुरी पर नचाया
अपनी राह न चुन पायी
परिधि में रह क्या पाया
चाहत नही चाँद सी बनूँ
एकाकी मौन तनहा रहूँ
बस रूप बदलूँ हर घड़ी
चमक उधारी पर इतरूँ
बनना चाहूँ नभ का तारा
निज ज्योति चमकूँ सारा
अविरल अचल हो न मंद
नाचूँ मुक्त व्योम विस्तारा
न बंधन न तिमिर का डर
तय करूँ अपना मुक़द्दर
जगमगाऊँ झिलमिलाऊँ
टक जाऊँ नभ के उर पर
माना एक दिन टूट जाऊँगी
अमिट अमर न कहलाऊँगी
पर जाते जाते बन मन्नत
क़िस्मत इक संवार जाऊँगी
रेखांकन I रेखा